आज भारतवर्ष की स्वाधीनता दिवस पर पेश है: एक महान :देशभक्त और क्रांतिकारी की जीवनी, जिसने कभी आज़ाद भारत का सपना देखा था और अपनी नज़रिए से उसको पाने के अपना जीवन निव्छावर कर दिया|
एक युवा जिसने अपने जीवन में २५ वसंत भी नहीं देखे हों, जिसका नाम भगत सिंह जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अत्यंत सम्मानित और लोकप्रिय क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी के साथ जब आज भी लिया जाता हो, जिसके शहीद होने पे महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरु, मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना जैसे दिगज नेता उसके सम्मान में कहने को मजबूर हो गए हों, "चन्द्रशेखर सीताराम तिवारी" उर्फ़ "चन्द्रशेखर आजाद" के अलावें और कौन हो सकता है|
"चन्द्रशेखर की मृत्यु से मेँ आहत हुं ऐसे व्यक्ति युग में एक बार ही जन्म लेते हेँ। फिर भी हमे अहिंसक रुप से ही विरोध करना चाहिये।" - महात्मा गांधी
"चन्द्रशेखर आजाद की शहादत से पूरे देश में आजादी के आंदोलन का नये रुप में शंखनाद होगा। आजाद की शहादत को हिदुंस्तान हमेशा याद रखेगा।" - पण्डित जवाहर लाल नेहरू
"पण्डितजी की मृत्यु मेरी निजी क्षति हेँ मेँ इससे कभी उबर नही सकता।" - पण्डित मदन मोहन मालवीय
"देश ने एक सच्चा सिपाही खोया।" - मोहम्मद अली जिन्ना
पण्डित सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के सुपुत्र चन्द्रशेखर का जन्म भावरा ( मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले) में जुलाई २३, १९०६ को हुआ था|
१८९९ के अकाल के समय अपने निवास उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव को छोडकर पण्डित सीताराम तिवारी जी पहले अलीराजपुर रियासत में, फिर भावरा में जा बसे थे । चन्द्रशेखर आजाद के व्यक्तित्व पर अपने पिता का छाप साफ दिखाई देती ही | उन्हीं की तरह चन्द्रशेखर जी साहसी, स्वाभिमानी, हठी और वचन के पक्के थे।
भावरा में अपने प्रारंभिक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद, उच्च अध्ययन के लिए वाराणसी में संस्कृत पाठशाला में प्रवेश लिया| .१९१९ के जलियांवाला बाग (अमृतसर) नरसंहार ने चंद्रशेखर जी को काफी व्यथित किया| १९२१ में जब महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन शुरू किया तो चंद्रशेखर जी ने सक्रियता से भाग लिया और पंद्रह वर्ष की आयु में अपनी पहली सजा भी भुगती| उन्हें जब क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त पकड़ा गया और जब मजिस्ट्रेट ने उसका नाम पूछा, उन्होंने कहा "आजाद"| कहते हैं कि हर पन्द्रह बेतों की चोट पे युवा चंद्रशेखर की मुख से "भारत माता की जय" और "महात्मा गाँधी की जय" ही निकला| तभी से चंद्रशेखर जी "चंद्रशेखर आजाद" के रूप में खुद की मर्जी से प्रख्यात हुए| उन्ही दिनों चंद्रशेखर आजाद ने कसम खाई है कि वह ब्रिटिश पुलिस द्वारा फिर कभी गिरफ्तार नहीं होंगे, जीयेगे आज़ाद और स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में मर जायेंगे|
फरवरी १९२२ में चौराचौरी की घटना के बाद गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन की वापसी ने भगतसिंह की तरह आज़ाद का भी गाँधी जी और काँग्रेस से मोह भंग कर दिया| अब आजाद अधिक आक्रामक और क्रांतिकारी तरीकों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हो गये |
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्र सान्याल, जोगेशचन्द्र के साथ मिलकर चन्द्रशेखर आजाद ने उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ (एचआरए) का गठन किया। काकोरी ट्रेन डकैती हो या भगतसिंह का असेम्बली में बम फेंकना हो या साण्डर्स की हत्या का षडयंत्र या फिर यशपाल द्वारा 1929 में वायसराय की गाड़ी पर बम फेंकना हो, इन सभी में चन्द्रशेखर आजाद का खुला योगदान था। वह आजाद ही थे जिन्होंने भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरू की फांसी रुकवाने के लिए दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा था जहां से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आजाद ने अपने बूत ही झांसी और कानपुर में क्रान्तिकारियों के अड़डे बना दिये थे|
चंद्रशेखर आजाद ब्रिटिश पुलिस के लिए एक आतंक थे, जो उन्हें जिंदा या मुर्दा हर कीमत पर आपने रास्ते से हटाने की हर कोशिश कर रही थी| २७ फरवरी १९३१ को यशपाल को समाजवाद के प्रशिक्षण के लिए रूस भेजे जाने सम्बंधी योजनाओं को अन्तिम रूप देने की इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में वह अपने साथियों के साथ चर्चा कर रहे थे, मुखबिर की सूचना पर उन्हें घेर लिया गया। आजाद ने अपने बाकी साथियों को वहां से निकलने का आदेश दिया और खुद अंग्रेजों से मोर्चा लेने लगे। उन्होंने तीन पुलिस वालों को तो मौत के घाट उतार दिया और सोलह को घायल कर दिया। अंत में जब एक गोली शेष बची तो उन्होंने मृत्युपर्यन्त आजाद रहने की अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करते हुए आखिरी गोली स्वयं को ही मार ली। पुलिस आजाद से इतनी भयभीत थी कि उनके मृत शरीर पर कई गोलियां दागने के काफी देर बाद ही पास पहुंचने की हिम्मत जुटा पाई थी| अंग्रेजों ने चुपके से उनका अन्तिम संस्कार कर दिया लेकिन आजाद की शहादत ने देश में एक लहर फैला दी। क्रान्तिकारियों ने शमशान से आजाद की अस्थियां सम्मानपूर्वक निकालते हुए शहर में जुलूस निकाला और इस जूलूस में इलाहाबाद समेत कई जिलों की जनता उमड़ पड़ी। अन्तिम विदाई सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी और जवाहर लाल नेहरू ने सम्बोधित किया और इस सच्चे सपूत को विदाई दी।
विशाल ने मनोज प्रकाशन की यह हिंदी किताब विशेष तौर से आज का दिन यादगार बनाने के लिए स्कैन किया है, उम्मीद है आप सभी पसंद करेंगे|
साथ में कुछ आजाद के कुछ वास्तविक चित्रों पे भी गौर फरमाइए:
जय हिंद!
may the blessing be always with you!!............................................................
ReplyDeleteभारत माता के सच्चे सपूत 'चंद्रशेखर आज़ाद' की जीवनी पर प्रकाश डालते हुए इस चिट्ठे और किताब के लिए आपको साधुवाद.ये एक विडंबना ही रही है की भारत माता के ऐसे सपूतों के हिस्से में वो लोकप्रियता कभी भी नहीं आई जो उस दौर के समकालीन दुसरे मुख्य धारा के कुटनीतिक नेताओं के हिस्से में आई और इसकी मुख्य वजह रही उस दौर की राजनीती पर महात्मा गाँधी और उनकी अहिंसात्मक नीतियों का हावी होना.गरम दल या हिंसा का जवाब हिंसा से देने में विश्वास रखने वाले क्रांतिकारियों को कभी भी मुख्य धारा के नेताओं का समर्थन प्राप्त नहीं रहा और हमेशा ही उनकी नीतियों का बहिष्कार किया जाता रहा इसलिए आम जनमानस के बीच वो वैसी लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पाए जो उनको मिलना चाहिए थी.
ReplyDeleteमुझे याद है की स्कूली दिनों में गाँधी,नेहरु,पटेल आदि के बारे में तो स्कूल की किताबों में काफ़ी प्रचुर मात्र में पढ़ने को मिलता था परन्तु भगत सिंह,आज़ाद या सुभाष चन्द्र बोस के बारे के चंद लाइन ही पढ़ने को मिलती थी.
दरअसल,ये क्रन्तिकारी नेता कभी भी अपने सुख-साधन के बारे में लम्बी सोच लेकर नहीं चले अथवा ये भी भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में एक-आध कुर्सी प्राप्त कर लेते अगर उसी सोच के अनुसार चलते.इन भारत माता के सपूतों का तो बस एक ही ध्येय था की कैसे अंग्रेजों को उन्ही की भाषा में समझा कर देश छोड़ने पर मजबूर करना जिससे इनका उद्देश्य और भी पवित्र हो जाता है क्योंकि मुख्य धारा के विदेश में पढ़े-बड़े अधिकांश नेताओं के मकसद तो बस स्वतंत्र भारत में सत्ता प्राप्त करने भर का था.
कॉमिक वर्ल्ड : वाह जाहीर भाई ! वाह ! क्या सुलझे हुए तर्क प्रस्तुत किये हैं और सच कहूँ , शायद ही किसी और का ध्यान इन तथ्यों की तरफ गया हो ( आप जैसे चंद सूझवान पाठकों को छोड़ कर) ऐतिहासिक पोस्ट हो और उसपर आप जैसे 'जुझारू' और 'दिग्गज' की प्रतिकिर्या आये, वाह जैसे सोने पे सोहागा ! यूँ ही तो नहीं हम आपकी टिपण्णी का पलकें बिछा कर इन्तेजार करतें हैं !
ReplyDeleteबहुत सही फ़रमाया आपने की मुख्या धारा से जुड़े नेताओं का मकसद तो केवल आजाद भारत में सत्ता प्राप्त करने तक का ही था , इनकी सोच दूर की थी की बिना आपने प्राण दिए देश की बागडौर आपने हाथ में लो , प्राणों की आहुति देने के लिए आजाद, भगत सिंह , करतार सिंह सराभा जैसे सुरमा हैं तो ! जबकि इसके विपरीत आजाद जैसे बब्बर शेरों का मुख्या मकसद था , फिरंगियों को देश से बाहर निकलना, चाहे इसके लिए अपना बलिदान भी क्यों न देना पड़े, और दिया भी , इन भारत माता के सपूतों को तो बस अपनी मातृभूमि की आजादी का ही मोह था , बस और कुछ नहीं
आज भी हमारे देश में चंद्रशेखेर 'आजाद' को उतना याद नहीं करते , जितना की नेहरु या गाँधी को करते हैं , बच्चे बच्चे को पता है की 2 OCT . या फिर 14 NOV . की तारीख की क्या महत्वता है , क्या हमारे देश में कभी भी 'आजाद' का जन्मदिवस या फिर शहीदीदिवस मनाया गया है कभी ?? नहीं न , पर क्यों , आखिर क्यों नहीं मनाया जाता उनका जन्मदिवस या शहीदीदिवस जिनके बलिदानों की वजय से हम सब आज आजाद हैं ?
आज़ाद भाई आपने सचमुच मेरे कमेन्ट के मर्म को समझ लिया.क्या आप जानते हैं की बड़े घरों के विदेशों में पले-बड़े और वहीँ की संस्कृति में रंगे हुए चंद नेताओं ने जब ये भाँपा के अंग्रेजों के दिन अब भारत में गिने-चुने रह गए है तो झट से अपना अंग्रेजी पहनावा उतर कर टोपी-कुरता अपनाया और तमाम खतरों से दूर रहते हुए चालाकी से स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर कब्ज़ा कर लिया.
ReplyDeleteअपना बलिदान देकर अंग्रेजों की नाक में दम करने वाले ही असल में सच्चे क्रन्तिकारी है पर अफ़सोस उनके बलिदानों को किस बेरहमी से दबा दिया गया.
ज़हीर भाई :आपका यह कथन बिलकुल तर्कसंगत है की ऊँचे घरों के नेताओं नें जब देखा की अंग्रेज अब जाने वाले हैं तो उन्होंने झट से टोपी कुर्ता धारण कर लिया , दरअसल दूसरे विश्व युद्ध के उपरांत , ब्रिटिश साम्राज्य की जडें खोखली हो चुकी थी और ऊपर से 'आजाद' जैसे शूरवीरों के बलिदानों से उभरा जनाक्रोश अब तक लावा बन चूका था, और अंग्रेज हुकमरानो के लिए इतने बड़े भारतवर्ष पर शासन करना अब मुश्किल हो चला था , वो भारत को छोड़ने का मन बना चुके थे , पर जाते जाते उन्होंने इस बात को ताड़ लिया था की हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के नेतायों में सत्ता प्राप्ति के लिए होड़ मची हुई है , पता इन सत्ता के भूखे नेताओं को भी था की अंग्रेज अब भारत छोड़ने वाले हैं , अंग्रेजों नें इन नेताओं के समक्ष विभाजन का प्रस्ताव रखा और इन नेताओं नें इसे स्वीकार कर लिया (जबकि अगर इस प्रस्ताव को यह सत्ता के भूखे नेता स्वीकार न भी करते तो भी दूसरे विश्व युद्ध से आर्थिक रूप से खोखले हुए और भारत माता के सपूतों के बलिदानों से बौखलाए हुए अंग्रेजों का भारत छोड़ना तय था ) इस विभाजन की तपश से आज भी भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों के निवासी झुलस रहे हैं और अंतराष्ट्रीय समुदाय इस आंच पर अपनी रोटियां सेक रहा है
ReplyDeleteभारत आजाद हुआ , किसी की 'आहिंसावादी' नीतियों के परिणामस्वरूप नहीं बल्कि 'आजाद' जैसे शेरों की कुर्बानियों से आये जलजले से जिसने ब्रिटिश साम्राज्य के किले को थरथरा डाला और रही सही कसर पूरी कर दी दूसरे विश्व युद्ध नें , जिसके उपरांत फिरंगियों का किला तहस नहस हुआ लेकिन गिरते गिरते फिरंगी विभाजन की कभी न भरने वाली खाई को जन्म दे कर चलते बने और आज अपनी इस कूटनीति पर अन्दर ही अन्दर मुस्करा रहे हैं
बहुत खुशी मिली आपका ये लेख पढ़कर और उससे ज्यादा इस पर की गयी टिप्पणियाँ...ये बात मेरे दिल में हमेशा काँटे की तरह चुभता रहता है कि हमारे देश की आजादी के लिए कष्ट उठाया हमारे देश के सच्चे वीरों ने और नाम हुआ गाँधी-नेहरु जैसे राष्ट्रद्रोहियों का..आशा करते हैं और निवेदन भी कि इस तरह की और लेखें आप आमजनों को उपलब्ध करवाएँगे...
ReplyDeleteWah itni jankari ore photo mere behen ke hindi project ke kaam ayega . Thanks
ReplyDeleteDomain For Sale
great informations
ReplyDeletejay hind
ReplyDeletegreat thought, i have aslo written 4 books on revolutionary, in which 2 books on Amar Shaheed Chandra sekhar Azad
ReplyDeleteazad wapis a jao
ReplyDeleteJai hind
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